मारे गए गुलफ़ाम उर्फ़ तीसरी क़सम
नाट्य दल के बारे में
दस्तक की स्थापना सन 2 दिसम्बर 2002 को पटना में हुई। तब से अब तक मेरे सपने वापस करो (कहानीकार – संजय कुंदन), गुजरात (गुजरात दंगे पर विभिन्न कवियों की कविताओं पर आधारित नाटक), करप्शन जिंदाबाद, हाय सपना रे (मेगुअल द सर्वानते के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास Don Quixote पर आधारित), राम सजीवन की प्रेम कथा (कहानीकार – उदय प्रकाश), एक लड़की पांच दीवाने (रचनाकार – हरिशंकर परसाई), एक और दुर्घटना (नाटककार – दरियो फ़ो), पटकथा (कवि – धूमिल), भूख, किराएदार (दोस्त्रोयोव्सकी की कहानी रजत रातें पर आधारित), एक था गधा (नाटककार – शरद जोशी), आषाढ़ का एक दिन (नाटककार – मोहन राकेश), जामुन का पेड़, पलायन, निठल्ले की डायरी, तीसरी क़सम आदि नाटकों का मंचन देश के अलग-अलग शहरों, गांव, कस्बों के आयोजित प्रमुख नात्योत्सवों में किया गया है।
दस्तक का उद्देश्य नाटकों के मंचन के साथ ही साथ कलाकारों के शारीरिक, बौधिक व कलात्मक स्तर को परिष्कृत और प्रशिक्षित करना और नाट्यप्रेमियों के समक्ष समसामयिक, प्रायोगिक और सार्थक रचनाओं की नाट्य प्रस्तुति करना भी है।
नाटककार की बात उर्फ़ सब हवा है!
नाटककार-निर्देशक की बात उर्फ़ सब हवा है!
फणीश्वरनाथ रेणु की दो प्रसिद्द कहानियों तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम और रसप्रिया पर आधारित इस नाटक की रचना करते हुए एक बात यह समझ में आई कि एक-दूसरे से स्नेह रखनेवाले दो इंसान को अलग करने के लिए किसी तीसरे व्यक्ति की परिकल्पना से ज़्यादा यथार्थवादी है परिस्थितियों और उसके दायरे में उलझकर रह गए दो ऐसे लोगों का होना, जो बने बनाए सामाजिक ताने-बाने के दायरे से बाहर निकलने की हिमाक़त नहीं करते। फिर ऐसा भी कई बार होता है कि दो लोग एक-दूसरे से स्नेह तो रखते हैं लेकिन बात कभी प्रदर्शित नहीं करते। ना ही इसके लिए समाज द्वारा आरोपित या तयशुदा हदों को ही पार कर पाते हैं; बल्कि इसका ख्याल भी उनके ज़ेहन में शायद नहीं आता है। इस अप्रदर्शित हद को रेणुजी जैसे रचनाकार बेहद शालीनता से पकड़ते हैं, जिसे प्रदर्शनकारी कला (नाटक) में रूपांतरित करना एक चुनौतीपूर्ण और ज़िम्मेवारी का कार्य है। वैसे भी अपनी-अपनी नज़र और नज़रिए वाले युग में जीवन जैसा है, उसे ठीक वैसे का वैसा देखने, समझने और महसूस करने के साथ ही साथ दर्ज़ करने की काबिलीयत विरले ही देखने को मिलता है।
एक तो रेणुजी की प्रसिद्ध कहानियाँ; दूसरे शैलेन्द्र द्वारा निर्मित शानदार फ़िल्म – तीसरी कसम। फिर नाटक की दरकार ही क्या है? इसलिए बहुत पसंदीदा कहानी होने के बाद भी इसके आधार पर नाटक की रचना करने से लगातार कतराता रहा। लोगों की ज़िद्द न होती तो शायद कभी लिखता भी नहीं। बहरहाल, बात कहानी और फ़िल्म की चल रही थी। रेणुजी की कहानी और फ़िल्म में थोड़ा कुछ अंतर भी है। कहानी और फ़िल्म दो अलग-अलग विधाएं हैं तो दोनों में अंतर का होना स्वभाविक भी है। फ़िल्म में फ़िल्म की ज़रूरत के हिसाब से गाने सहित बहुत सारे प्रसंग जोड़े गए हैं। जैसे, तीसरी कसम फ़िल्म में ज़मींदार नामक एक प्रमुख चरित्र आता है, जो रेणुजी की कहानी का पात्र नहीं है। बल्कि रेणुजी की कहानी में हीरामन और हीराबाई के बीच कोई इंसान कभी नहीं आता। रेणुजी की कहानी में स्नेह (शायद प्यार) बड़े ही कोमल और नाजुक अंदाज़ में है, शायद संवेदना और क्षणिक स्वप्न के स्तर पर। यही इस कहानी का मर्म है और जादू भी – शायद, जो सीधे दिल पर असर करती है।
फ़िल्म में चुकी हम चरित्र साक्षात् देख रहे होते हैं तो फ़िल्म की कहानी का मर्म यहाँ हमारे कल्पनातीत नहीं बल्कि साक्षात् उपस्थित होता है। नाटक भी चुकी कल्पना और परिकल्पना को अमूमन साक्षात् प्रदर्शित करने का माध्यम है इसलिए कहानी से ज़्यादा फ़िल्म के क़रीब है तो नाटक लिखते वक्त इसी अकाल्पनिक मर्म को पकड़ने की पुरजोर कोशिश रही। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि फ़िल्म के मुक़ाबले नाटक दर्शकों के समक्ष कल्पना का स्थान थोड़ा ज़्यादा ही छोड़ता है, क्योंकि यहाँ सब कुछ उपस्थित करने का प्रयास नहीं होता। वैसे फ़िल्म से रेणुजी का जुड़ाव भी सीधे-सीधे था, तो यह भी नहीं कहा जा सकता कि फ़िल्म में हुए परिवर्तन रेणुजी की कल्पना और परिकल्पना से परे की बात है! यह नाटक फ़िल्म और कहानी दोनों को आत्मसात भी करता है और उससे अलग भी है। अलग ना हो तो फिर एक अलग रचना की आवश्यकता ही क्या है? वैसे भी व्याख्या रंगमंच के प्रमुख कार्यों में से एक है। यही वह बात है जिसकी वजह से अच्छे से लिखित, निर्देशित, परिकल्पित और अभिनीत एक ही नाटक अन्य प्रस्तुतियों से अलग होता है। यह ना हुआ तो मामला नक़ल मात्र का होकर रह जाएगा, इसलिए व्याख्या आवश्यक है। हाँ, व्याख्यायित करते हुए ध्यान यह रखना है कि इस व्याख्या के चक्कर में कथा का मूल मामला घनचक्कर न हो जाए!
रेणुजी आम चरित्रों, स्थितियों और परिस्थितियों के एक ख़ास और सरल लेखक है और साथ ही सूक्ष्म भी। सरलता की ख़ासियत यह होती है कि वह जीतना सरल महसूस होता है, दरअसल उतना ही जटिल भी होता है। हीरामन, हीराबाई और मिरदंगिया की कथा भी जितनी सहज है उतनी ही जटिल भी, एकदम जीवन की तरह। हीरामन और हीराबाई अचानक ही मिलते हैं, कुछ पल साथ बितातें हैं और एक दिन अचानक ही अलग हो जाते हैं। वहीं मिरदंगिया मस्ती से जीवन काट रहा होता है कि एक दिन उसके सामने भी रम्पतिया का प्रश्न आ खड़ा होता है और फिर वो वहां से भाग खड़ा होता है और कला और कलाकार धर्म के विपरीत अपना जीवन व्यतीत करता है। धीरे-धीरे वह उस अवस्था था पहुँच जाता है जहाँ उसे ख़ुद भी समझ नहीं आता कि वो जीवन जी रहा है या जीवन से थेथरई कर रह है। यह दोनों कहानी हमारे सामने छोड़ जाते हैं अद्भुत एहसास, कई सवाल, कुछ कसम और कुछ पश्चाताप।
हीराबाई के गाड़ी में बैठने और कहानी के अंत में चले जाने के बाद भी हीरामन अपने बदन पर सुरसुरी महसूस करता है। ठीक ऐसी ही सुरसुरी मूल तत्व की तलाश में लगे उपन्यास अनामदास के पोथा (लेखक – हजारी प्रसाद द्विवेदी) वाले रैक्व मुनि भी महसुस करते थे और वो हर वक्त अपनी पीठ को खुजलाते रहते थे। इस सुरसुरी को समझना इतना आसान नहीं है! तभी तो रैक्व मुनी कहते हैं – “सब हवा है!” यह नाटक भी शायद इसी हवा को पकड़ने की ज़द्दोजहद है। यह जानते हुए कि हवा को पकड़ना असंभव और पागलपन का कार्य है। लेकिन मज़ा भी तो असंभव को संभव करने में ही है, यह जानते हुए कि यह असंभव है उसकी परिकल्पना करना, पागलपन ही सही लेकिन है बड़ा ही मज़ेदार काम। असंभव कितना संभव हुआ, कितना नहीं – यह तय करना निश्चित ही पाठकों और दर्शकों का अधिकार है।
नाटक में फ़िल्म तीसरी कसम में शैलेन्द्र द्वारा लिखित गीत, कबीर के कुछ निर्गुण, मैथिली भाषा के जगत-प्रसिद्द कवि विद्यापति की रचना, नौटंकी की प्रसिद्द मल्लिका गुलाब बाई की रचनाएं, चन्द्रशेखर मिसिर की एक प्रसिद्द रचना, फ़िल्म ‘अब क्या होगा’ का सावन कुमार द्वारा लिखित एक गीत के साथ ही साथ कुछ लोक और पारम्परिक गीतों का भी प्रयोग किया गया है। नाटक की ज़रूरत के मुताबिक़ कुछ गीत गीतकार न होते हुए भी मैंने ख़ुद लिखे लेकिन यह स्वीकारते हुए गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं कि इन गीतों की आत्मा भी रेणुजी की अन्य रचनाओं से प्रेरित है। कहने का तात्पर्य यह कि यहां जो कुछ भी लिखित या अलिखित है, उसका मूल तत्व रेणुजी की रचनाएँ ही हैं। मिरदंगिया दीन-दुनिया छोड़कर निर्गुनियाँ हो जाता है, तो कबीर हैं, विदापद नाच-गान है तो विद्यापति हैं, नाच-नौटंकी है तो गुलाब बाई हैं, लोक-जीवन है तो लोक और पारम्परिक लोक और गीत-संगीत है।
नाटक का एक बड़ा हिस्सा बैलगाड़ी की यात्रा और यात्रा के पड़ाव के रूप में घटित होता है। नाटक में इस यात्रा के प्रभाव को उत्पन्न करना मुश्किल प्रतीत होता है लेकिन अगर नाटक की ताक़त और नाटकीय युक्तियों का उचित और तकनीकी ज्ञान है तो यह काम मज़ेदार भी हो जाएगा, भरोसा रखिए। नाटक की ताक़त ही है कि उसके कर्ता-धर्ता और दर्शक अपने अनुभव, अनुभूति और तकनीक तथा कल्पना से मंच पर असंभव को सम्भव करे। सच में बैल और बैलगाड़ी ले आना कोई नाटकीयता नहीं है बल्कि आनंद तो तब आए जब ना बैल हो ना बैलगाड़ी और यात्रा का प्रभाव उत्पन्न हो जाए। यह पूरी तरह से संभव है, बस लोक और पारम्परिक नाटकीय तत्वों को आत्मसात करने की आवश्यकता है।
नाटक का मुख्य सूत्रधार रेणुजी की कहानी रसप्रिया का पंचकौड़ी मिरदंगिया है, वहीं मिरदंगिया की कथा कहने के क्रम में हीरामन सूत्रधार की भूमिका में आ जाता है। अब यह बात अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि रेणुजी की कथाओं के अद्बुत संसार में रसप्रिया के मिरदंगिया की कथा भी अपने आप में विरल है। जितना सरल उतना जटिल है। इन सारी रचनाओं को एक नाटक में किसी मोती की तरह पिरोना, किसी भी रचनाकार के लिए कितनी बड़ी चुनौती हो सकती है, यह बात कोई रचनात्मक ह्रदय व्यक्ति बड़ी ही आसानी से समझ सकता है। इस प्रस्तुत नाटक को भी इन सारी रचनाओं के प्रति एक आदर भाव के रूप में देखा जाना चाहिए।
लोक और पारम्परिकता की ख़ासियत ही यही है वह बहते पानी की तरह होता है, जो प्रत्येक काल में निर्विवाद रूप से मानव मस्तिष्क और धमनियों में कभी चेतन तो कभी अचेतन रूप से स्वतः ही प्रवाहित होता रहता है। जहां तक प्रश्न न्याय का है तो इन सारी रचनाओं के साथ इस नाटक में कितना न्याय हो पाया है – पता नहीं! हां, हमारी चेष्टा में कोई कमी नहीं। वैसे भी कोई भी नाटक मंचस्त होकर ही अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है। ख़ुद एक रंगकर्मी होने के नाते जाने-अनजाने जब भी कोई नाट्य-रचना करता हूँ तो वह पाठ्यालेख से ज़्यादा प्रदर्शनकारी आलेख होता है, इसलिए अब यह रचना अभिनेताओं, परिकल्पकों और निर्देशकों के हवाले। यही वह लोग हैं जो अपनी प्रतिभा, समर्पण, तकनीक, विचार-विमर्श, लगन-मेहनत, जोश-जूनून से लिखे हुए शब्दों में साक्षात् जीवन की स्थापना करते हैं। हां, इस नाटक को खेलने का विचार पाले रंगकर्मी इस बात से सतर्क रहें कि यह रचना उनकी भीषण परीक्षा लेने वाला है क्योंकि यह नाटक लोकजीवन की तरह खुलेपन का एहसास लिए हुए, भरपूर मात्रा में लोक-तत्वों के लबरेज़ है। यहां एक पल में पूरा का पूरा परिवेश बदल जाता है, एहसास बदल जाते हैं इसलिए इस नाटक का यथार्थ लोक और पारम्परिक नाटकों की शैली में से ज़्यादा मेल खाता है। जिनका भी हाथ लोक और पारम्परिक शैली में ज़रा तंग है, वह यहां ज़ोर आजमाइश ना करें वरना दामन में दाग़ की हासिल होगा। वहीं जहाँ तक प्रश्न अभिनेताओं का है तो ऐसे नाटकों में सम्पूर्ण अभिनेता की परिकल्पना ही साकार होती है अर्थात वह अभिनेता जो संवाद बोलने के साथ ही साथ नृत्य, सुर, ताल और लय को भी प्रस्तुत करने की प्रतिभा रखता हो। वैसे बिना सुर, ताल और लय के कोई अभिनय होता भी है!
इस नाटक का परिवेश बिहार का मिथिलांचल का अंचल है, इसलिए नाटक की परिकल्पना करते समय मैथिली संस्कृति का ध्यान रखना आवश्यक है, वहीं अभिनेताओं के लिए बड़ी ही सावधानीपूर्वक वहां के चाल-ढाल, बोली-बानी को समझना और आत्मसात करना बहुत ही आवश्यक हो जाता है; बगैर इसके इस नाटक में आत्मा का समावेश हो पाना असंभव है। हां, बिहारी भाषा के नाम पर बिहार के बाहर के लोग अमूमन जो भी प्रस्तुत करते हैं वह सराहनीय नहीं बल्कि बहुत ही सतही है, उससे बचने की आवश्यकता है इसलिए समझने और आत्मसात करने में सावधानी, जानकारी और सही मार्गदर्शन का होना बेहद आवश्यक ज़रूरतों में से एक है। जैसा कि सर्वविदित है कि बिहार के लोगों की मूल भाषा अमूमन मगही, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका और बज्जिका है इसलिए आदतन बिहार के लोग तालव्य, मुर्धन और दन्त से बोले जाने वाले को एक ही स में निपटा देते हैं, नुक्ता का प्रयोग नहीं करते लेकिन उससे भी ज़्यादा आवश्यक के वाचन और जीवन की शैली और संस्कृति को पकड़ना। हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहाँ कोस-कोस पर पानी और वाणी बदलता है। इसलिए बड़े ही सतर्कता के साथ नाट्यविधा में सत्व की प्रतिष्ठा करने हेतु यह सारे और इस जैसे और भी बहुत सारे कार्यों का किया जाना आवश्यक है; वैसे भी आहार्य ग्रहण करके, मंच की रौशनी में याद किए संवादों को उपस्थित दर्शक समूह के समक्ष बोल देना भर ही नाट्य-मंचन नहीं कहलाता है और उससे नाट्यानुभूति उपस्थित नहीं होता। फिर वह नाटक ही क्या जहाँ नाट्यानुभूति ही ग़ायब हो। हाँ, केवल हीराबाई हैं जिनकी भाषा में शुद्धता होनी चाहिए क्योंकि जाननेवाले यह जानते हैं भली-भांति कि उनकी तालीम, तहजीब और तमीज़ आम इंसान से बेहतर ही होती है हीराबाई जैसे लोगों के पास, तभी आकर्षित होता है एक आम इंसान। आकर्षण नामक शब्द के मायने वृहद हैं, निवेदन यह है कि इसे संकुचित न किया जाए। जहाँ तक प्रश्न इस नाटक की संगीत परिकल्पना का है तो लोक धुनों के साथ ही साथ लोक गायकी का मिजाज़ और लोक वाद्यों का प्रयोग ही समुचित होता, जिसका वर्णन नाटक में विस्तृत रूप से किया गया है। हाँ, इस बात का ख़ास ध्यान हो कि संगीत साक्षात् उपस्थित हो ना कि रिकॉर्डिंग बजा दिया जाए। वैसे भी नाटक की ताक़त उसकी जीवन्तता है, कुछ और नहीं। नाटक में कुछ गीत पूरा लिखे हैं, ज़रूरी नहीं कि पूरा गीत नाटक में रखा ही जाए बल्कि नाटक खेलनेवाला दल अपनी ज़रूरत के हिसाब से कुछ पंक्तियां हटा भी सकते हैं। बहरहाल, बातें कभी ना ख़त्म हुई हैं और ना होगीं। इसलिए फ़िलहाल नाटक पर ध्यान केंद्रित किया जाए। तो लीजिए – क़िस्सा होता है शुरू, पाक, इश्क और रंगीन।
निर्देशक के बारे में
पुंज प्रकाश, सन 1994 से रंगमंच के क्षेत्र में लगातार सक्रिय अभिनेता, निर्देशक, लेखक, अभिनय प्रशिक्षक व प्रकाश परिकल्पक हैं। मगध विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में ऑनर्स। नाट्यदल “दस्तक” के संस्थापक सदस्य। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के सत्र 2004 – 07 में अभिनय विषय में विशेषज्ञता। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में सन 2007-12 तक बतौर अभिनेता कार्यरत। अब तक देश के कई प्रतिष्ठित अभिनेताओं, रंगकर्मियों के साथ कार्य। एक और दुर्घटना, मरणोपरांत, एक था गधा, अंधेर नगरी, ये आदमी ये चूहे, मेरे सपने वापस करो, गुजरात, हाय सपना रे, लीला नंदलाल की, राम सजीवन की प्रेमकथा, पॉल गोमरा का स्कूटर, चरणदास चोर, जो रात हमने गुजारी मरके, पटकथा, भूख, किराएदार, एक था गधा, आषाढ़ का एक दिन, पलायन, मारे गए गुलफ़ाम और तीसरी क़सम, निठल्ले की डायरी आदि नाट्य प्रस्तुतियों का निर्देशन तथा कई नाटकों की प्रकाश परिकल्पना, रूप सज्जा एवं संगीत निर्देशन। कृशन चंदर के उपन्यास दादर पुल के बच्चे, महाश्वेता देवी का उपन्यास बनिया बहू, फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास परती परिकथा एवं कहानी तीसरी कसम व रसप्रिया पर आधारित नाटक मारे गए गुलफ़ाम उर्फ़ तीसरी क़सम, भिखारी ठाकुर के जीवन व रचनाकर्म पर आधारित नाटक नटमेठिया, हरिशंकर परसाई की रचना पर आधारित निठल्ले की डायरी सहित मौलिक नाटक भूख और विंडो उर्फ़ खिड़की जो बंद रहती है तथा पलायन का लेखन। देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रंगमंच, फिल्म व अन्य सामाजिक विषयों पर लेखों के प्रकाशन के साथ ही साथ कहानियों और कविताओं का लेखन व प्रकाशन।
मंच पर
विदुषी रत्नम – हीराबाई
श्रेया आर्यन – महुआ, चाँद, नट्टिन
आरती शर्मा – रामपतिया, बिजली, नट्टिन
रश्मि – चायवाली, नट्टिन, नाचनेवाली, ग्रामीण
सुधा – मोहना, छोटा जोकर, बच्चा
अभिषेक आनंद – हीरामन
शिवम – बुढा मिरदंगिया
सन्देश – ग्रामीण, गाड़ीवान, लालमोहर
सुजीत कुमार – ग्रामीण, धुन्नीराम, मुनीम
वरुण गोस्वामी – हवलदार, ग्रामीण, पलटदास
गुलशन कुमार – ग्रामीण, लहसनमा, पलटदास
प्रिंस सूर्यवंशी – ग्रामीण, महाजन, ढोलकिया, जवान मिरदंगिया, बजरंगी, मियांजान
राहुल कुमार – दारोगा, ग्रामीण, छोटा बच्चा, ढोलक वादक
चितरंजन गौंड – साईकलवाला, बच्चा, ग्रामीण, किन्नर
अमन कुमार – ग्रामीण, अजोधादास, बाइस्कोप वाला, बहादुर
रंधीर कुमार – ग्रामीण, गाड़ीवान, बनवारी, किन्नर, पहलवान
ओम अमर – हीराबाई का नौकर, ग्रामीण
राज रॉय – मुनीम, ग्रामीण, मियांजान, गाड़ीवान, नौकर
अंकित कुमार – ग्रामीण, सौदागर, ज़मींदार, सिपाही, किन्नर
हर्ष विजेता – मैनेजर, बच्चा, ग्रामीण
ईशान कश्यप – बच्चा, ग्रामीण, लहसनवां, किन्नर
तसव्वर हुसैन – जोकर, किन्नर, बच्चा, मोहना, ग्रामीण
अंशु कुमार गुप्ता – ग्रामीण, गाड़ीवान, मट्टू, बच्चा, किन्नर
निशांत कुमार – ग्रामीण
रोहित राज – ग्रामीण
गौरव कुमार – ग्रामीण
मंच परे
कहानी – फणीश्वरनाथ रेणु
नृत्य परिकल्पना – प्रिंस सूर्यवंशी
गीत – पारम्परिक, कबीर, गुलाब बाई और पुंज प्रकाश
संगीत परिकल्पना – पुंज प्रकाश, शिवम और पारम्परिक
मुख्य वादन – शिवम (हारमोनियम), प्रिंस, राहुल और अभिषेक (ढ़ोलक)
वस्त्र परिकल्पना – श्रेया, विदुषी, रश्मि
मंच सामग्री – सुजीत, सन्देश और राहुल
ध्वनि संचालन – मुकेश ओझा
प्रकाश परिकल्पना – पुंज प्रकाश
सहयोग – विदुषी रत्नम एवं राहुल कुमार
कहानी – फनीश्वरनाथ रेणु
प्रस्तुति – दस्तक, पटना
निर्माण – हाउस ऑफ़ वेराइटी, पटना
प्रस्तुति सलाहकार – विनीत कुमार
प्रस्तुति नियंत्रक – सुमन सिन्हा
सहायक निर्देशक – सन्देश कुमार और सुजीत कुमार
नाटककार, परिकल्पना एवं निर्देशन – पुंज प्रकाश
Maare Gaye Gulfam aka Teesri Kasam
About the group:
Dastak was established on 2nd of December 2002 in Patna. Since then plays like Mere Sapne Wapas Karo (story – Sanjay Kundan), Gujarat (a play based on poems by various poets on Gujarat riots), Corruption Zindabad, Haye Sapna Re (based on the world famous novel Don Quixote by Miguel de Cervante), Ram Sajeevan ki Prem Katha (story – Uday Prakash), Ek Ladki Panch Deewane (Writer – Harishankar Parsai), Ek aur Durghatna (Playwright – Dario fo), Patkatha (Poet – Dhumil), Bhookh, The Tenant ( based on Dostroyevsky’s story Rajat Raatein), Ek tha Gadha (Playwright- Sharad Joshi), Ashadh ka Ek din ( Playwright- Mohan Rakesh), Jamun ka ped, Palayan, Nithalle ki Diary, Teesri Kasam etc have been staged in major drama festivals organised in different cities, villages and towns of the country.
The objective of Dastak is to stage plays as well as to refine and train the physical, intellectual and artistic level of the artists and to present contemporary, experimental and meaningful creations to theatre’s lover.
Director’s and playwright’s Note: everything is air!
While writing this play which is based on two famous stories of Phanishwarnath Renu —Teesri Kasam urf Maare gaye Gulfam and Raspriya, one thing I realised is that in separation of two people who love each other is not always the idea of a third person trying to separate them but what is more realistic is the idea of those two people trapped within the circumstances and boundaries of the social network they have created. Then it also happens many times that two people who are affectionate for each other but never show it. Nor are they able to cross the limits imposed or set by the society for this. In fact, the thought of this probably doesn’t even come to their mind.
Creators like Renu Ji captures such unseen extent with great decency and converted it into performing art (drama) very gracefully which is a challenging as well as responsible task. Anyway, In the era of individual eyes and viewpoints, it is rare to find someone with the ability to see, understand, feel and record life exactly what as it is.
Though, firstly “Teesri kasam” is one of the famous stories of Renu and secondly it is a brilliant film produced by Shailendra. Then what is the need for a drama play? Thats why despite Teesri kasam being my favourite story, I always kept shying away from composing play based on it but it was the people’s stubbornness and request which made me write it. Anyway, the talk was about the story and the film Teesri kasam. As story and films are two different genres, so it is natural for there to be a difference between the two like a lot of themes including songs have been added to the films as per the requirement of the film. For example, the film Teesri kasam features a major character named Zamindar, who is not a character in Renu’s story. In fact, In Renu’s story no human being ever comes between Hiraman and Heerabai. In Renu’s story, affection (love) is expressed in a very soft and delicate manner, perhaps at the level of sympathy and momentary dream. This is the crux and also the magic of his story which goes straight to the heart.
As In films, we are actually seeing the characters in person due to which the essence of film’s story is not beyond our imagination and Drama is a medium to express existing imagination and concept, hence it is closer to a film than a story. So, while writing this play, a strong effort was made to capture this non-imaginative essence. We can’t deny the fact that drama leaves a little more room for imagination before the audience compared to films as there is no attempt to present everything. Renu had a direct connection with the film so the changes in the film were not beyond his imagination and design. This play both assimilates the film and the story and also differ from it. If it wasn’t different then what was the need for a separate creation? Anyway, interpretation is one of the major functions of theatre and this is what makes a well-written, directed, conceived and acted play stand out from other productions. If this doesn’t happen then the matter will remain mere imitation. Hence, explanation is necessary and yes, while explaining, keep in mind that the basic issue of the story should not get confused.
Renu is a typical and simple writer of common characters, situations and circumstances. The beauty of Renu’s simplicity is that it feels easy, but in reality it is equally complex which can be seen in Teesri Kasam. The story of Heerabai, Hiraman and Mirdangiya is as simple as it is complex, just like life. Hiraman and Heerabai suddenly meets one day, spends a few moments together and one day suddenly get separated. While Mirdangiya who was living his life happily. One day, the question of Rampatiya arises in front of him. After which he left everything and started living a life contrary to his art and religion. Gradually he reaches a stage, where even he himself does not understand whether he is living life or avoiding it. Both of these stories leave us with amazing feelings, many questions, some oaths and some regrets.
From Heerabai, sitting in the cart to her leaving at the end of the story, Hiraman still feels the sursuri (a kind of itching) in his body. Same we can see with Raikav Muni in the novel Anamdas ka Potha (Author – Hajari Prasad Dwivedi) where he felt the same way and used to scratch his back all the time. It is not so easy to understand this Sursuri. That is why Raikav Muni says – everything is air! Perhaps this play is a struggle to catch that air, knowing that catching air is impossible. But the fun lies in imagining and making impossible possible. So, how much impossible became possible is now definitely the decision of readers and viewers.
The play includes songs written by Shailendra from the film Teesri Kasam, some of Kabir’s Nirgun, compositions by world renowned poet Vidyapati of Maithili language, compositions by nautanki’s famous Mallika Gulab Bai, a song by Chandrashekhar Misir, a song written by Sawan Kumar from the film Ab Kya Hoga along with some folk and traditional songs. Despite not being a lyricist, I myself wrote some songs as per need of the play but I proudly admit that the soul of these songs is also inspired by Renu’s other compositions. What I mean to say is that whatever is written or unwritten here, its basic elements are Renu’s creation.
A large part of the play takes place on the journey of the bullock cart and the stoppages throughout the journey. It seems difficult to create the effect of this journey in a drama but if one has proper technical knowledge about the power of drama and dramatic devices then this work will also become fun. It is the power of drama that its actor and the audience make impossible things possible on stage with their experiences, feelings, techniques and imagination. Actually, bringing bulls and bullock carts is not a drama, rather the joy comes when there is neither bull nor bullock cart and the effect of the journey is created. It is completely possible; one just needs to assimilate folk and traditional dramatic elements.
The main narrator of the play is Panchkaudi Mirdangiya from Renu’s story —Raspriya, while in the course of telling the story of Mirdangiya, Hiraman comes into the role of the narrator. Though, there is no need to tell this separately that in the amazing world of Renu’s stories, the story of Raspriya’s Mirdangiya is also rare in itself. Stringing all these creations together in a play can be a big challenge for any creator but any person with a creative heart can easily understand this. So this kind of presented play are seen as a gesture of respect towards all these creations. The specialty of folk and traditionalism is that it is like flowing water, which flows automatically in the human brains and arteries in every period, sometimes consciously and sometimes unconsciously, without any doubt. As far as the question of justice is concerned, I don’t know how much justice has been done in this drama with all these creations. Yes, there is no lack in our efforts. Anyway, any play achieves its completion only after being staged. Being a theatre artist, knowingly or unknowingly, whenever I write a drama, it is more of a performance piece than a textual one. Hence now this creation is in the hands of actors, designers and directors. These are the people who with their talent, dedication, technique, deliberation, hard work, enthusiasm and passion will add life to these written words. Yes, theatre artists who have conceived the idea of performing this play should be aware that this work is going to put them to a severe test because here in this play, entire environment and feeling changes in a moment. This play has a feeling of openness like folk life and is full of folk elements. So, those who are a little weak in folk and traditional style should not try their hands here otherwise they will get nothing but stains on their hem. As far as the question of actors is concerned, then in such plays the concept of complete actor is realized that is the actor who along with speaking dialogues also has the talent to present dance, tune, music and rhythm. By the way, Is there any acting without tune, music and rhythm?
The setting of this play is the Mithila region of Bihar, hence it is necessary to keep in mind the Maithili culture while designing the play. At the same time, it becomes very important for the actors to carefully understand and assimilate the movements and dialects of that place; Without this it is impossible to include the soul in this drama. Yes, whatever people from outside Bihar usually present in the name of Bihari language is not commendable but very superficial, there is a need to avoid it. Therefore, one of the most important requirements is to have caution, knowledge and proper guidance in understanding and assimilating the dialect. As it is well known that the native language of the people of Bihar is generally Magahi, Bhojpuri, Maithili, Angika and Bajjika, hence habitually the people of Bihar dispose of the words spoken with talavya, murdhan and dant s in one word. They Do not use Nuktas. Here, what is more important is to capture the style and culture of the recitation and life. We live in a country where water and speech changes every mile. Therefore, it is necessary to do all these and many more such tasks with great caution to establish reality in the theatre; In a case, Just by wearing costumes, reciting the memorised dialogues in front of the audience in the stage light, is not called theatre staging and it doesn’t give any theatrical feel. Then what is that drama, where the theatrical experience itself is missing? Yes, there is only Heerabai whose language should be pure because those who know it, well know that their education, culture and manners are better than the common man and these are the things which makes such personalities different and attractive. Here, The meaning of the word attraction is broad, so I request not to narrow it down. As far as the question of the musical concept of this play is concerned, the use of folk tunes as well as the mood of folk singing and folk instruments would have been appropriate, which has been described in detail in the play. Yes, there’s a special request that the music of this play must be live, not a recorded one because the strength of the drama is its liveliness, nothing else. Though, It is not necessary that the entire full length songs should be kept in the play, rather the play troupe can also remove some lines as per their need. However, things have never ended and never will. Therefore, let us concentrate on the drama for now. So here the story begins —pure, love and colourful.
About the director:
Punj Prakash is an actor, director, writer, acting coach and lighting designer who has been continuously active in the field of theatre since 1994. He has a Bachelor degree in History Honors from Magadh University and is a Founding member of the theatre group Dastak. He then Graduated from National School of Drama, New Delhi (Session 2004 – 07). He continued Working as a professional actor in National School of Drama Repertory from 2007-12. Till now, he has worked with many eminent actors and theatre artists of the country. He has directed plays – ek aur durghatana, Marnoprant, ek tha gadha, andher nagri, ye admi ye chuhe, mere sapne wapas Karo, gujarat, Haye sapna re, Leela nandlal ki, ram sajeevan ki premkatha, Paul gomra ka scooter, charandas chor, jo raat humne gujari mar ke, patkatha, bhookh, kirayadaar, ek tha gadha, asadh ka ek din, palayan, maare gaye gulfaam aka teesri kasam, nithalle ki diary, etc and has also done light design, stage design and music direction of many plays. He has written – (Krishan Chander’s novel) Dadar pul ke bacche, (Mahasweta Devi’s novel) Baniya Bahu, Mare Gaye Gulfam urf Teesri Kasam, (based on Phanishwarnath Renu’s novel Parati Parikatha, Teesri Kasam and Raspriya), Natamethiya (a drama based on the life and works of Bhikhari Thakur), Bhookh, Window aka Khirki Jo Band Rahti hain, Palayan, Nithalle’s Diary (based on the work of Harishankar Parsai) etc. He is actively Writing and publishing stories and poems along with publication of articles on theatre, film and other social topics in various prestigious newspapers and magazines of the country.
On stage:
Vidushee Ratnam – Heerabai
Shreya Aryan – Mahua, Chand, Nattin
Aarti Sharma – Rampatiya, Bijli, Nattin
Rashmi – Chaiwali, Nattin, Dancer, Villager
Sudha – Mohana, little joker, child
Abhishek Anand – Hiraman
Shivam – Budha Mirdangiya
Sandesh Kumar – Villager, Cartman, Lalmohar
Sujeet Kumar – Villager, Dhunniram, Accountant
Varun Goswami – Sergeant, Villager, Palatdas
Gulshan Kumar – Villager, Lahsanma, Palatdas
Prince Suryavanshi – Villager, Mahajan, Dholakia, Jawan Mirdangiya, Bajrangi, Miya Jaan
Rahul Kumar – Inspector, Villager, Small Child, Dholakiya
Chittaranjan Gond – Cyclist, Child, Villager, Kinnar
Aman Kumar – Villager, Ajodhadas, Bioscope holder, Bahadur
Randhir Kumar – Villager, Cartman, Banwari, Kinnar, Wrestler
Om Amar – Heerabai’s servant, villager
Raj Roy – Accountant, Villager, Miya jaan, Cartman, Servant
Harsh Vijeta – Manager, Child, Villager
Ishaan Kashyap – Child, Villager, Lahsanwan, Kinnar
Tasawwar Hussain – Joker, Kinnar, Child, Mohana, Villager
Anshu Kumar Gupta – Villager, Cartman, Mattu, Child, Kinnar
And – Nishant Kumar, Rohit Raj, Gaurav Kumar
Off Stage:
Story – Phanishwarnath Renu
Dance Choreography – Prince Suryavanshi
Music – Traditional, Kabir, Gulab Bai and Punj Prakash
Music Concept – Punj Prakash, Shivam and Traditional
Main instruments – Shivam (harmonium), Prince, Rahul and Abhishek (dholak)
Costume – Shreya, Vidushee, Rashmi
Property – Sujeet, Sandesh and Rahul
Music Operator – Mukesh Ojha
Light – Punj Prakash
Light assistant – Vidushee Ratnam and Rahul Kumar
Presentation – Dastak, Patna
Presenter – House of Variety, Patna
Presentation Consultant – Vineet Kumar
Presentation Controller – Suman Sinha
Playwright, concept and direction – Punj Prakash